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नया साल NEW YEAR है, तो नववर्ष क्या है। दोनों का एक दूसरे से क्या संबंध है?

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नया साल NEW YEAR है, तो नववर्ष क्या है। दोनों का एक दूसरे से क्या संबंध है?

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नया साल 1 जनवरी से आरंभ होता है और नववर्ष चैत्र के महीने से शुरू होता है। दोनो में भारी अंतर है। अंग्रेजी पद्धति का नया साल का प्रकृति, परमात्मा और काल के कारक महाकाल से कोई संबंध नहीं है
नववर्ष का आधार मास, तिथि, नक्षत्र, ऋतु, वार त्योहार, सूर्य, चंद्र मास और उत्तरायण, दक्षिणायन से जुड़ा है।
नव वर्ष जिस दिन शुरू होता है उसे काल का नया संवत्सर कहते हैं। इसके अधिष्ठाता स्वयं महाकाल हैं। ज्योतिष, भविष्य वाणी, सूर्य, चंद्र ग्रहण का आंकलन इसी के मुताबिक होता है।
नववर्ष चैत्र मास की पड़वा से आरंभ होता है। इस दिन नीम की नई कोपल, कालीमिर्च और सेंधानमक मिलाकर गोली बनाकर पूरे साल एक गोली रोज खाली पेट खाने से खतरनाक असाध्य रोग जड़ से मिट जाते हैं।
शिव पुराण के मुताबिक नववर्ष को नए वस्त्र धारण करने से रोग नहीं होते। सफलता मिलती है और नए कार्य शुरू होकर धन संपदा बढ़ती है।
महाकाली तंत्र में लिखा है कि नववर्ष को घर के ऊपर वायव्य कोण पर एक ध्वजा लगाने से घर का वस्तु शांत होता है। अचानक दुर्घटना नहीं होती।
Amrutam patrika, gwalior से साभार


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काल का नया भाग्य और भाष्य संवतरादि

प्रकृति को नव्य शोभा प्रदान करने वाले वसन्त काल का आरंभ संवत्सरादि के त्यौहार से होना बडी विशेषता की बात है।
युग का प्रारंभ अर्थात् ब्रह्मदेव की सृष्टि रचना का प्रारंभिक प्रथम दिन (युगादि) उगादि है।
हमारे सारे त्यौहारों का आधार ऋतुएँ ही हैं। उगादि (युगादि) का त्यौहार वसन्त में आता है। इस काल में प्रकृति अत्यन्त रमणीय होती है।
तरुओं के पल्लवित होने, फूलों के विकसित होने, पक्षियों के कूजने आदि से नई शोभा लिये सब में भर देती है प्रकृति।
इस समय वातावरण समसीतोष्ण रहता है। इसलिए सारी ऋतुओं में से एक वसन्त ऋतु, ऋतु के रूप में वर्णित है। प्रकृति से प्रदत्त वसन्त के साथ-साथ, प्रकृति का एक भाग, मानव का मन भी यदि नर्मल हो तो वास्तविक व शाश्वत वसन्त प्राप्त होता है। इस अंश (बात) की याद, एक और बार दिलाती है उगादि।
नूतन काल की आदि; युगादि है। युगादियों और मन्वादियों में पितृकर्म एवं व्रतों का आचरण करना हमारा है; ऐसा पुराणों में कहा गया है।
हमारी ऋतुएँ छः हैं - काल भगवद् स्वरूप है। यह आदि, अनादि, अनन्त है।
हमारी व्यावहारिक सुविधा के लिए , युग, ऋतुएँ, मास, दिन इत्यादि का प्रचलन हुआ।
अनन्त काल में ऋतुओं का भाग अत्यल्प है। फिर भी उस वश्वात्मा का अनन्त सौंदर्य सभी ऋतुओं में विराजमान हो रहा है।
काल स्वरूप सूर्य के भ्रमण से ऋतुएँ उत्पन्न हो रही हैं। ऋतुओं की उत्पत्ति के लिए सूर्य से संबन्धित अनेकों कारण पृथ्वी का धुर, राशि चक्र से कुछ झुके रहने से ऋतुएँ बन रही हैं।
ऋतुएँ विविध प्रदेशों में बदलती रहती हैं; ये हर एक ही रीति से नहीं रहतीं।
तैत्तरीयारण्यकं (१-३) में ‘‘एक हि शिरो नाना मुखे कृत्यन्त दृतु लक्षणम्” कहा गया है। इसमें संवत्सर-देवता का वर्णन है। इस देवता का एक सिर और दो भिन्न मुख हैं, ये ऋतु के लक्षण हैं।
भाष्यकारों ने इन दो मुखों को दो अयन मानकर, सारी ऋतुओं का निरूपण इन अयनों में किया।
ऋतु, मास के भेद आदित्य के कारण से ही हो रहे हैं, ऐसा तैत्तरीयारण्यकम् में प्रमाण मिलता है।
‘दुहन्ति सप्तैका सृजतः (ऋग्वेद) सातों होत (होते) आकर ऊषा का दूध दुहकर रात और दिन बना रहे हैं। इन दोनों के कारण छः ऋतुएँ उत्पन्न हो रही हैं।
ज्योतिर्मयी देवताओं, सूर्य, समस्त ऋतुओं, प्रातः सायंकालादि त्रिकालों के लिए ऊषा - देवता ही मातृ-स्वरूप है।
उगादि (१८.३.२०१८ ) के संदर्भ में

वसन्ते कपिल स्सूर्योग्रीष्मे कांचन सप्रभः।

श्वेतो वर्षापुवर्णेन पांडु श्शरदि भास्करः।।

हेमन्ते ताम्रवर्णस्तु शिशिरे लोहितो रविः।

इतिवर्णा समाख्या ता सूर्यस्यतु समुद्भवाः।।

अर्थात ऐसा अंग पुराण पूर्व भाग, सूर्यरश्मि प्रयोजन कहता है। विष्णु किरणों से प्रभावित वसन्त हल्दी के वर्ण में, गेहूँ के रंग में रहता है। ये किरणें उत्तरायण में विकास को प्राप्त होती हैं। दक्षिणायन में क्षीणता को प्राप्त करती हैं। ग्रीष्म के हेतु कान्तियाँ हैं।

ऋतुएँ छः हैं; ऐसा हम परिगणन कर रहे हैं। निम्न लिखित संवत्सर-देवता का वर्णन ऋतु-संख्या सूचित करता है।

पंचपादं पितरं द्वादशा कृति दिव अहुः परे अर्धे पुरीषिणम्।

अधेमे अन्य उपरे विचक्षणं सप्त चक्रे षलर आहुरर्पितम्।।(ऋग्वेद)

अर्थात पितर याने द्वादश मास-परिशोभित "संवत्सर मूर्ति" है; ऐसा हमको मानना है।
ऋग्वेद में पाँच ही ऋतुएँ कही गयी हैं। ऐतरेय ब्राह्मण एवं तैत्तरीय संहिता ने हेमन्त व ' शिशिर को एक ही ऋतु के रूप में गिनने से ऋतुएँ पाँच हो गयीं।
शतपथ-ब्राह्मणों ने शरत एवं वर्षाऋतु को मिलाकर ऋतुओं की गणना की।
ऋतुएँ पाँच हैं; ऐसा कहना उत्तर ध्रुवप्रान्त का लक्षण है। दक्षिण में आने के पश्चात् आर्यों ने सूर्य - कान्ति को बारह महीनों में देखा; अतः उन्होंने अभिवर्णन किया कि ऋतुएँ छः हैं।
तमिल सारस्वत से विदित होता है कि ऋतुएँ छः हैं। तमिल वाङ्गमय के पंच महा काव्यों में 'शिलप्पदिकारमु" में महाकवि इलंगो अडिगल ने अभिवर्णन किया कि ऋतुएँ छः हैं।
ऋतुएँ कालचक्र के अर हैं। इसलिए काल-प्रमाण में इनकी प्राधान्यता अधिक है। दिवा - रात्र समान होने का “विषुवत-काल" वसन्त काल में ही प्रारम्भ होता है।
प्रकृति के छः गुण ही, छः ऋतुएँ हैं। आनन्द, प्रकृति का तत्त्व है। एक-एक ऋतु, एक-एक मनःप्रवृत्ति को विकसित करती है।
ऋतुएँ मानव जीवन के लिए अद्वैत- विज्ञान प्रदान करने काल के प्रधान विभाग बन गयी है।
जीवन के सुख-दुःख तात्कालिक हैं, इसे हंम ऋतुओं द्वारा जान सकते हैं।
संगीत एवं ऋतुओं में एक प्रकार का आन्तरिक सन्निहित समाकर्षणीय संबन्ध है।
शिशिरस्य वसन्तस्य सन्धौ हिन्दोल गगकः।

ऐसा एक आधार है। शिशिर वसन्त के सन्धिकाल में गाया जाने वाला राग हिन्दोल है। संगीत में वसन्त भैरवी राग सुप्रसिद्ध है।
ज्योतिष पण्डितों ने गणना की है कि वसन्त, चैत्र - वैशाख मासों में ही होता (आता) है।
किस ऋतु में, किस प्रकार का औषध लेना है, किस प्रकार का आहार लेना है, हमें वैद्य-ग्रन्थ घोषित कर रहे हैं।
अमुक औषध का सेवन अमुक ऋतु में करने से ही संपूर्ण फल प्राप्त होता है, ऐसा हमें अवगत होता है।
आयुर्वेदाचार्य वैद्य लोग ऋतु क्रम के अनुसार ही चिकित्सा किया करते हैं।
शरत, वसन्त ऋतुओं में पित्त - श्लेष्मों यानि कफ का प्रकोप अधिक होता है।
काल के परिणाम क्रम में प्रकृति हमें, आरोग्य या अनारोग्य पैदा करती है। उसे ऋतुएँ समय के अनुसार सुधारती हैं।
ऋतु परिणाम के अनुसार प्रकृति की जीवकोटि में परिवर्तन अनिवार्य होता है।
ऋतुएँ, काल-चक्र के विभाग हैं। उनका जो सम्बन्ध ज्योतिष शास्त्र से है, उसका परिशीलन करना चाहिए । ऋतु, काल-मान का एक प्रधान विभाग है।
कालमान में सूक्ष्मतम विभाग "तृटि" है| १०० तृटियाँ = १ लव, ३० लव = १ निमेष, १८ निमेष = १ काष्ठ, ३० काष्ठ=१ कला, ३० कलाएँ = १ क्षण, १२ क्षण १ मुहूर्त, गुर्वक्षरोच्चारण का काल प्राण, १० गुरु = १ प्राण, ६ प्राण = १ विनाडी, ६० नाडियाँ= १ घटिका, ६० घटिकाएँ = १ दिन, ७ दिन= का एक वार।
१५ दिन= का १ पक्ष, २ पक्ष = का एक मास, २ मास की= १ ऋतु, और ३ ऋतुएँ= का १ अयन, तथा २ अयन= एक वर्ष।
प्रकृति के छः गुण ही, छः ऋतुएँ हैं। आनन्द, प्रकृति का तत्त्व है। एक-एक ऋतु, एक-एक मनःप्रवृत्ति को विकसित करती है।
ऋतुएँ मानव जीवन के लिए अद्वैत● विज्ञान प्रदान करने काल के प्रधान विभाग बन गयी हैं। जीवन के सुख-दुःख तात्कालिक हैं, इसे हम ऋतुओं द्वारा जान सकते हैं।
संगीत एवं ऋतुओं में एक प्रकार का आन्तरिक, सन्निहित समाकर्षणीय संबन्ध है।
शिशिरस्य वसन्तस्य सन्धौ हिन्दोल रागकः। - ऐसा एक आधार है। शिशिर - वसन्त के सन्धिकाल में गाया जाने वाला राग हिन्दोल है। संगीत में वसन्त भैरवी राग सुप्रसिद्ध है।
भरत के नाट्य शास्त्र में ऋतु प्रसक्ति है। दृश्य काव्यों में ऋतुओं के सूचक कुछ विशिष्ट आचार हैं।
प्रपंच भर के समस्त साहित्य में ऋतु वर्णन है। ऋतु वर्णन का अर्थ काल महिमा का अभिवर्णन है।
सृष्टि, कालप्रबोधित है।
काव्यं यशसेर्धकृते व्यवहार विदेशिवेत रक्षतये सद्यः पर निर्वृतये कान्ता सम्मित तयोपदेशयुजे
नामक आलंकारिक वाक्य को अब हम जोड़ ले सकते हैं। लोक-श्रेयार्थ रचित काव्य-प्रबोधों में काल-महिमा का अभिवर्णन अनिवार्य है।
काल के प्रतिनिधि, सूर्य-चन्द्रों का उदय व अस्तमय एवं छः ऋतुओं के वर्णन द्वारा कवियों ने लोक को काल-स्वरूप का विवरण दिया। ऋतुएँ, नायकनायिकाओं को उद्दीपन, विभाव पैदा करने वाले सम्मोहनास्त्र हैं।
अतः उन-उन प्रयोजनों की साधना के लिए कवियों ने अपने वांग्मय में इन्हे प्रवेश कराया। ऋतु - वर्णन काव्य के अंगीरसों के लिए उपस्फोरक बन, उसके विकास के हेतु बने।
सारे कवियों ने अपूर्व रीति से अपने तेलुगु-काव्यों में अष्टादश वर्णनों को विशिष्ट स्थान प्रदान करके प्रकृति ऋतुओं का वर्णन किया।
वसन्तोत्सवों को प्रमुख स्थान देनेवाले रेड्डि-राजाओं एवं विजय नगर के शासकों ने श्रृंगार कलामय जीवन बिताया।
कोंडवीटि के प्रभु कुमारगिरि रेड्डी को इन वसन्तोत्सवों के कारण ही "कर्पूर वसन्त : रायलु' नामक उपाधि प्राप्त हुई।
प्रबन्ध-युग, स्वर्णयुग के सम्राट श्रीकृष्णदेवरायलु हर साल बड़े धूमधाम के साथ | वसन्तोत्सव मनाया करते थे।
इस तरह काल के विभाग, ऋतुओं ने वेद एवं समस्त शास्त्रों और उपनिषदों तथा दृश्य-श्राव्य-काव्यों में स्थान प्राप्त कर लिया।
हमारी ऋतुएँ पाँच हैं अथवा छः की संख्या की प्रस्तावना की भाँति ऋतु - शोभा भी महत्तर है।
सृष्टि- यज्ञ का प्रेरक, आज्य “सम्यक वसन्ति ऋतव्योस्मिन्निति संवत्सरः वत्सरश्च” के व्युत्पत्ति- अर्थ के अनुसार ऋतुएँ इसमें निवास करती हैं, अतः “संवत्सर” नाम पड़ा। ऋतुओं से युक्त संवत्सर का पहला दिन ‘‘उगादि’’ है। वर्ष के छः ऋतुओं में से पहली ऋतु “वसन्त ऋतु' है। वेदकाल में मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभा जैसे नाम मासों के होते थे।
मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृत्” कहता है ऋग्वेद। उक्त वाक्य से विदित होता है कि संवत्सर, वसन्त से प्रारंभ होता है। उस वसन्त ऋतु के मधु एवं माधव मास हैं; ऐसा उक्त वाक्य से विदित होता है।
चैत्रेमासि जगद्ब्रह्म ससर्ज प्रथमेहानि

शुक्ल पक्षे समग्रन्तु तद सूर्योदयेसति ऐसा हेमाद्रि पण्डित ने विवरण दिया।

ब्रह्मदेव ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन जगत का प्रारम्भ किया।प्रपंच में सबसे ऊपर रहकर पृथ्वी आदि ग्रह-गोलों पर अपनी किरणों के समूह से प्रभाव डालने वाले सूर्य हैं।
उनमें निहित अन्तर्गत-शक्त्युत्पत्ति केन्द्र विशेष के कारण संवत्सर, अयन, ऋतुएँ, मास, पक्ष इत्यादि बन रहे हैं। विविध ऋतुओं में प्रकृति विविध रीतियों से स्पन्दित होती है।
ग्रीष्म ऋतु में भूमि सूर्य के निकट आने से अधिक गर्मी होती है। वर्षा ऋतु में प्रथम वर्षाओं से सारे खेत भीग जाते हैं तो अधिक वर्षाओं के कारण सारा भूभाग दलदल बन जाता है। इससे छूत की बीमारियाँ फैल जाने की संभावना है।
शरत एवं हेमन्त ऋतुएँ सुहावनी रजनी और ठंड पैदा करती है। शिशिर ऋतु, पतझड के मौसम में सूखे व पके पत्तों के झड़ जाने से सारे पेड़ ढूंठ बन जाते हैं। वसन्त ऋतु के आगमन से प्रकृति में नूतन उत्तेज भर जाता है।
ढूँठे पेड़ कि सलयों से भर जाते हैं। नूतन आशयों के स्फोरक के रूप में वर्ष का प्रारम्भिक ऋतु, वसन्त का आगमन होता है। ऐसा कहा गया है।
“वसन्त सुखं यथातथा अस्मिन्निति-वसन्तः” वसन्त में लोग सुख व शान्ति से रहते हैं, ऐसा इसका अर्थ है।
वसंत्कोस्या सीदाज्यं, ग्रीष्म इद्मश्श रद्दवि-

ऐसा पुरुष सूक्त का वचन है। इस समस्त सृष्टि को एक यज्ञ के रूप में मान कर, ऐसा कहा गया है। इस समस्त सृष्टि नामक यज्ञ को प्रेरित करने वाला आज्य, वसन्त है, ग्रीष्म, समिधा है, शरत हविस है।
इस प्रकार का सृष्टियज्ञ, संपन्न होने का कारक वसन्त प्रथम ऋतु बन कर संवत्सरादि हुआ। वसु, इस वसन्त के अधिदेवताएँ हैं।
ये वसु पदार्थ - अन्तर्गत जीवधर्म (पदार्थांतर्गत जीवधर्म) हैं। वसुओं के कारण ही, सूर्य अपनी जीव-शक्ति के प्रभाव से सारी सृष्टि को जिला रहा है।
फलतः प्रकृति पल्लवित हो रही है तथा मनों में नूतन विचार उत्पन्न हो रहे हैं। जिस ऋतु में अधिदेवता बन ये वसु रहते हैं, वह वसन्त संवत्सर का प्रारम्भिक ऋतु बना।
वसु नामक राजा ने कठोर तप करके जब राज्य, प्राप्त किया तब इन्द्र ने उसे “उगादि" के दिन ही नूतन वस्त्र भेंट किये, ऐसा एक पौराणिक कथन है। ब्रह्माण्ड पुराण से विदित होता है कि उगादि के दिन ही ब्रह्मा ने सृष्टि आरंभ की।
अनेकानेक उगादियाँ उनके नाम

वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन कृतयुग, कार्तिक शुक्ल नवमी के दिन त्रेतायुग, भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी के दिन द्वापरयुग तथा माघ कृष्ण अमावास्या के दिन कलियुग का प्रारम्भ हुआ, ऐसा 'रत्नमाला' से विदित होता है।
ब्रह्मवचन' से विदित होता है कि माघ शुक्ल पूर्णिमा के दिन घोर कलियुग प्रारंभ हुआ।
कार्तिक शुक्ल नवमी के दिन कृतयुग, वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन त्रेतायुग, माघ की अमावास्या के दिन द्वापरयुग एवं भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी के दिन कलियुग प्रारंभ हुआ, ऐसा “भविष्य पुराण” में है।
चाहे युगादियों के जन्मों में मतभेद क्यों न दिखते हों, युगादियों और मन्वादियों में स्नान करके होम, दान, जपों का आचरण करने वाला मनुष्य अनन्त पुण्यफल प्राप्त कर सकता है, ऐसा भारत-वचन द्वारा ज्ञात होता है।
तिथियाँ ही नहीं, कुछ नक्षत्र युगादि नक्षत्रों के रूप में परिगणित होते थे। किसी समय कार्यों ( सूर्य के रहने का नक्षत्र) के अनुसार ऋतुओं का निर्णय होता था। वेदांगज्योतिष काल में धनिष्ठा कार्ते से प्रारंभ होने वाली शिशिर ऋतु के माघ पूर्णिमा से दो महीनों की पहली ऋतु, संवत्सर प्रारंभ होता था। नक्षत्रों का आगमन, ऋतुओं और सूर्यसंचार के अनुसार अनेकों उगादियाँ परिगणन में आयीं।
रामायण के अनुसार चैत्रमास, बारहवाँ मास था। सारी ऋतुओं के बीतने के पश्चात् बारहवें महीने में याने चैत्र शुक्ल नवमी के दिन राम का जन्म हुआ, ऐसा रामायण के 'बालकाण्ड' में है।
रामायण के काल में वैशाख का प्रारंभ ही संवत्सरादि के रूप में परिगणित हुआ। मार्गशिर व पुष्यमास वाले हेमन्त में संवत्सर का आरंभ होता है, ऐसा "कात्युडु" ने कहा।
अमरसिंह ने अमरकोश के कालवर्ग में, मार्गशीर्षे सहामार्ग आग्रहायणिकश्चसः" और "हेमन्त इस उगादि के दिन सारे लोग उषःकाल में ही अभ्यंगस्नान करके फूलों, आम के पत्तों के तोरणों से द्वारबन्धों को सजाते हैं।
संवत्सर-पंचांग तथा संवत्सरादि देवता की षोडशोपचार सहित पूजा संपन्न करके षड़रुचियों वाले “उगादि-पच्चडि" का भोग लगाते हैं।
शिशिरो स्त्रियाम्” कहकर पहले मार्गशिर-मास तथा हेमन्त ऋतु का वर्णन किया।
किसी समय आश्वयुज पूर्णिमा संवत्सरादि रहा करती थी। माघ पूर्णिमा के बाद अष्टमी के दिन “अष्टक” नामक व्रत का आचरण किया करते थे।
उस दिन को भी संवत्सरादि के रूप में परिगणना की। पाली-साहित्य में "कौमुदी चातुर्मासीय क्षणं" नामक एक उत्सव दृष्टिगोचर होता है।
वात्स्यायन ने इसे "कौमुदी जागर" उत्सव के रूप में उल्लिखित किया। संहिताओं एवं ब्राह्मणों में आश्वयुज पूर्णिमा की प्रस्तावना नहीं है। किन्तु गृह्य-सूत्रों में इस पूर्णिमा को विशेष प्राधान्यता दी गयी। इस से ही नव वर्ष का आरंभ होता था।
इस प्रकार मार्गशिर, पुष्य, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख मासों में संवत्सरादि के आने का कारण हुआ।
शतपथ ब्राह्मणों के अनुसार वैदिक काल में चार चार मासों वाली, तीन ऋतुओं का संवत्सर विभाग होता था। इस विशिष्ट ऋतु के प्रारंभ से विविध प्रकार के कार्य प्रारंभ होते थे। ये कर्म, चार महीनों तक चलते थे। ऋतुएँ, कालधर्म से संबन्धित हैं।
रामायण काल के वैशाख- ज्येष्ठ मासों के मध्य का वसन्त विषुवत्काल (दिन-रात सम होने का काल); महाभारत काल तक चैत्र वैशाख मासों में चला गया।
पाँचवीं शताब्दी के वराह मिहिर ने वेदांग ज्योतिष काल से भी प्राचीन ब्राह्मणों को काल में वसन्त विपुवत्काल, कृत्तिका नक्षत्र में संभव होने का परिशीलन किया।
अपने समय में, वसन्त - विषुवत्काल का अश्विनीनक्षत्र में संभव होना देखकर, वह प्राचीन देवमान दिन का प्रारंभ, उत्तरायण पुण्यकाल आदि के संप्रदायों के अनुसार वही वसन्तकाल है तथा वसन्त विषुवत्काल ही संवत्सरादि है, ऐसा निर्णय करके मास-ऋतु के सामरस्य का निरूपण किया।
वराहमिहिर के निर्णय के अनुसार चैत्र मास को ही संवत्सरादि मान कर त्यौहार मनाने का आचार पड़ गया। अमावास्या से समाप्त होने वाले काल को ही मास के रूप में परिगणित कर रहे हैं। इसलिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही संवत्सरादि मानकर त्यौहार मनाने की भावना उत्पन्न हुई।
चान्द्रमान के प्रत्येक मास का नाम उस महीने की पूर्णिमा के दिन के नक्षत्र के आधार पर रखा गया। पूर्णिमा के दिन चित्ता नक्षत्र होने से चैत्रमास बना।
इसी प्रकार दूसरे मासों के नाम होते हैं। इस तरह चान्द्रमान के अनुसार मासों में से प्रथम मास चैत्र, प्रथम पक्ष शुक्ल, प्रथम दिन की तिथि प्रतिपदा “उगादि" (युगादि) का त्यौहार मनाने का आचार, अनादिल काल से अमल में है।
इस उगादि के दिन सारे लोग उषःकाल में ही अभ्यंगनस्नान करके फूलों, आम के पत्तों के तोरणों से द्वारबन्धों को सजाते हैं।
संवत्सर - पंचांग तथा संवत्सरादि देवता की षोडशोपचार सहित पूजा संपन्न करके षड्रुचियों वाले “उगादि-पच्चडि" का भोग लगाते हैं।
इसके पश्चात् पच्चडि का सेवन करके भोजन करने उद्यत होते हैं। सायंकाल को पंचांग-श्रवण करके अपना आय-व्यय, सुयोग-दुर्योग व भाविजीवन का क्रम जान लेते हैं। आगामी नव वर्ष. सुख-संतोष का आलवाल (थाला) हो; नव उत्साह एवं नया उत्तेज प्राप्त हो, ऐसी हमारी आशा व आकांक्षा है।

उत्तर लिखा · 11/2/2023
कर्म · 1790
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नया साल (New Year) और नववर्ष में अंतर:

नया साल और नववर्ष दोनों ही नए साल की शुरुआत के प्रतीक हैं, लेकिन दोनों में कुछ सांस्कृतिक और भाषाई अंतर हैं।

नया साल:

  • यह एक सामान्य शब्द है जिसका उपयोग किसी भी संस्कृति में नए साल की शुरुआत के लिए किया जा सकता है।
  • ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार, नया साल 1 जनवरी को मनाया जाता है।

नववर्ष:

  • यह एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है "नया वर्ष"।
  • यह शब्द आमतौर पर भारतीय संस्कृति में हिंदू नव वर्ष के लिए उपयोग किया जाता है, जो चंद्र कैलेंडर पर आधारित होता है और आमतौर पर मार्च या अप्रैल में पड़ता है।

दोनों का संबंध:

  • दोनों ही नए साल की शुरुआत का प्रतीक हैं।
  • दोनों ही संस्कृतियों और परंपराओं में महत्वपूर्ण हैं।
उत्तर लिखा · 14/3/2025
कर्म · 320

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