भागवत कथा सागर श्री शुकदेव को शुक महर्षि की उपाधि प्राप्त है। शुक को संस्कृत में तोता कहते हैं। शुकदेवजी ने अमरनाथ में तोते के रूप में जो अमरकथा सुनी थी, वह श्रीमद्भागवत कथा थी। जिसका प्रचार प्रसार इन्होंने ने ही किया।
Shukdev Maharaj Story
व्यासदेवजी परमात्मा भगवान के अवतार हैं और श्री महर्षि शुकदेव उनके दिव्य पुत्र हैं।
ऋषि का अर्थ है जिन्होंने अपनी इंद्रियों को नियंत्रित किया है । यह संस्कृत के ऋषीक शब्द से लिया गया है।
महर्षि शब्द का प्रयोग उन संत पुरुषों के लिये किया जाता है जो इंद्रियों के नियंत्रण के शिखर पर पहुँच चुके हैं। श्री शुक एक अखंड ब्रह्मचारी थे।
वह कामवासना पर विजय प्राप्त करने का एक सर्वोत्तम उदाहरण हैं और इस प्रकार उन्हें विश्व को सबसे पहले श्रीमद्भागवतम् सुनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
अपनी इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण करने के कारण उन्हें अक्सर शुकदेव गोस्वामी के नाम से संबोधित किया जाता है।
गोस्वामी और महर्षि शब्दों का समान अर्थ होता है। गो का अर्थ है इंद्रियाँ और स्वामी का अर्थ है नियंत्रक।
अतः जिसने इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है वह गोस्वामी कहलाता है। भक्तिपूर्ण सेवाओं की नौ विधियों ( नवधा भक्ति) में श्रवण और कीर्तन प्रथम दो विधियाँ हैं।
राजा परीक्षित ने श्रवण के माध्यम से तथा श्री शुकदेव ने कीर्तन के द्वारा मोक्ष को प्राप्त किया।
दोनो श्रीमद्भागवतम् के कारण गंगा के तट पर एकत्र हुए। वैदिक शास्त्रों में कहा है “श्रीविष्णोःश्रवण परीक्षिदभवद्वैयासकिः कीर्तने"। शुकदेव का दूसरा नाम वैयासकी है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में श्री शुकदेव के जन्म की कथा बहुत विस्तार से प्रस्तुत की गई है।
श्री व्यासदेव की पत्नी, जाबाली ऋषी की पुत्री थी। श्री व्यासदेव और उनकी पत्नी ने पहले बहुत वर्षों तक कठिन तपस्या की और फिर संतान उत्पत्ति के कार्य में लगे।
व्यासदेव की पत्नी गर्भवती हुइ लेकिन उनके गर्भ में कोई साधारण जीव नहीं थी। उनके गर्भ में एक योगी की आत्मा थी, वह शुकदेव थे।
शुकदेव को मालुम था कि बाह्य संसार भौतिक प्रकृति के तीन गुणों और माया से भरा हुआ है, अतः पूर्ण संरक्षण के लिये उन्होंने माता के गर्भ में ही रहने का निश्चय किया।
योगी को गर्भ में रहते हुए १२ वर्ष का समय व्यतीत हो गया। व्यासदेव ने शिशु को शास्त्रिक ज्ञान के द्वारा समझाने का बहुत प्रयास किया लेकिन शिशु पर उसका कोई असर नहीं हुआ, तब व्यासदेव परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण को सूचित करने के लिये द्वारका गये।
भगवान स्वयं व्यासदेव की कुटिया में आये और गर्भस्त शिशु को अपनी लीलाओं पर विश्वास दिलाया।
यद्यपि भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के आधीन कार्य करने वाले जीव कर्म बन्धन में फस जाते हैं, लेकिन जो व्यक्ति भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं की शरण लेते हैं वह निश्चित रूप से मुक्त अवस्ता में स्थित होते हैं।
गर्भस्थ शिशु ने भगवान द्वारा कहे गये इस संपूर्ण सत्य को स्वीकार किया और पूर्ण विश्वास के साथ बाहर आगया।
लेकिन वह कुटिया में नहीं रहा और मुक्त अवस्था में सम्पूर्ण विश्व का भ्रमण करने के लिये चल पड़ा।
श्री व्यासदेव ने उनका पीछा करना शुरू किया और “हे पुत्र, हे पुत्र" पुकारने लगे। बाद में श्री व्यासदेव ने उन्हें श्रीमद्भागवतम् दिया, जो उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेश पर लिखा था।
श्री शुकदेव ने सुन्दर भागवतम् का अध्ययन किया और उसका रसपान करके भगवान श्रीकृष्ण के एक शुद्ध भक्त बन गये।
उन्होंने गंगा नदी के तट पर सम्पूर्ण भागवत राजा परीक्षित को सुनाई, जो एक ब्राह्मण बालक के शाप के कारण मृत्यु का इंतजार कर रहे थे।
इस प्रकार श्री शुकदेव एवं महाराज परीक्षित के समागम से महान एवं दिव्य भागवतम् का इस विश्व में आविर्भाव हुआ।
हम पहले ही समझ चुके हैं कि श्री शुकदेव कामवासना के ऊपर विजय के एक सर्वोच्छ प्रतीक हैं। इस विषय को सिद्ध करने वाली एक बहुत अच्छी घटना है।
शुकदेव सदैव ब्रह्मभावना में स्थित होकर नग्न विचरण करते थे।
एक बार ध्यान की अवस्था में वह एक जंगल में जा रहे थे जहाँ झील के पास कुछ देवता स्त्रियाँ नग्न स्नान कर रही थीं। उन स्त्रियों ने किसी प्रकार की शर्म महसूस नहीं की यद्यपि वे नग्न थीं।
शुकदेव ने भी उनके प्रति ध्यान नहीं दिया। लेकिन कुछ क्षणों के बाद श्री व्यासदेव भी वहाँ पहुँचे। तभी स्त्रियाँ झील से बाहर निकली और शरमाते हुए कपडों से अपने शरीर को ढ़क लिया।
व्यासदेव को यह विपरीत भगवान श्रीकृष्ण ने भागवतम् को ब्रह्माजी के हृदय में प्रकट किया था।
बाद में ब्रह्माजी ने इसे अपने पुत्र नारद को सुनाया। नारदजी ने इसे व्यासदेव को बताया, जिन्होंने इसे ग्रंथ के रूप में प्रकट किया और अध्ययन करने के लिये शुकदेव को दिया।
शुकदेव ने इसे महाराज परीक्षित को सुनाकर उन्हें जन्म-मृत्यु चक्र से मुक्त कराया।
सूत महर्षि ने इसे शुकदेव गोस्वामी से सुना, फिर शौनक आदि अन्य ऋषियों को नेमिशारण्य में सुनाया।
ऐसा पंचमवेद के रूप में श्रीमद्भागवत् सुप्रसिद्ध हुए। के व्यवहार देख कर बहुत हैरानी हुई कि एक जवान पुरुष के आने पर इन स्त्रियों को कोई शर्म नहीं आई जबकि एक बूढ़े व्यक्ति के आने पर वह पूर्णतया शरमा गयी।
श्री व्यासदेव ने इसका कारण जानना चाहा तो स्त्रियों ने बड़ी सुन्दरता से उत्तर दिया कि शुकदेव वास्तव में एक मुक्तात्मा हैं और उन्हें पुरुष या स्त्री का भेद नहीं है। उन सबने शुक महर्षि को हृदय से प्रणाम किया और उस स्थान से चली गयी।
यह दृष्टांत शुकदेव का कामवासना के ऊपर विजय का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
श्रीमद्भागवतम् को महापुराण कहा जाता है, इसमें १८,००० सुन्दर श्लोक हैं जिन्हें १२ स्कंधों में विभाजित किया गया है।
श्री शुकदेव के बारे में श्रीमद्भागवतम् के तीसरे श्लोक में ही कहा गया है- “शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् । श्रीमद्भागवतम् को वेदवृक्ष का पका हुआ फल कहा जाता है। जो फल वृक्ष पर पकता है वह स्वाद में बहुत मीठा होता है।
लेकिन भागवतम् श्री शुकदेव के मुख से निकले अमृत के मिश्रण से अत्यधिक मीठा हो गया है।
कभी-कभी श्री शुकदेव के चित्र में उनके मुख को तोते के द्वारा दर्शाया जाता है। लेकिन श्री व्यासदेव द्वारा रचित भागवतम् में इस विषय का वर्णन नही किया गया है।।
भागवतम् के चार के श्लोकों में श्री शुकदेव का वर्णन किया गया है।
शुकदेव के चरण, जंघा, हाँथ, बाहें, कंधे आदि सभी अंगों की बनावट को बहुत कोमल बताया गया है।
उनकी आँखे बहुत सुन्दर और बड़ी हैं, उनकी नाक और उनके कान उन्नत है, तथा उनका मुख बहुत आकर्षक है और उनकी गर्दन की बनावट और सुन्दरता शंख की तरह है।
शुक महर्षि इतने महान हैं कि जब वे गंगातट पर पहुँचे, जहाँ महाराज परीक्षित मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे, तब वहाँ उपस्थित सभी लोग उनके स्वागत में खड़े हो गये।
नारद, व्यासदेव, सूतमहर्षि, अनेकों राजाओं एवं संत पुरुषों ने अपने स्थान पर खड़े होकर महान भक्त शुकदेव को पूर्ण सम्मान दिया। उन सभी ने शुकदेव को महाराजा परीक्षित के उद्धार की जिम्मेदारी सौंप दी।
श्री शुकदेव भौतिक जगत से इतने विरक्त थे कि वह एक स्थान पर अधिक समय व्यतीत नहीं करते थे।
वह एक गृहस्थ के घर में केवल इतना समय व्यतीत करते थे जितने समय में गोदोहन किया जा सकता है। वह गृहस्थ के घर में गाय के दूध की याचना करने के लिये जाते थे।
लेकिन अपने इस स्वभाव के विपरीत वह श्रीमद्भागवतम् की अमृतमय कथा को सुनाने के लिये सात दिन और सात रात एक ही जगह गंगा के तट पर रहे। महाराज परीक्षित जन्म से ही भगवान् कृष्ण के भक्त थे।
वह कृष्ण के भक्तों से भली-भाँति परिचित थे। उन्होंने शुकदेव से विनम्र अभिवादन किया और प्रार्थना की, “हे मेरे प्रिय गुरुदेव ! आप सभी भक्तों के आद्यात्मिक गुरु हैं और एक योगी भी हैं।
अतः कृपा करके मनुष्य जीवन के उद्देश्य के बारे में विस्तार से बतायें और उनके बारे में बतायें जो मृत्यु के निकट हैं। उन्हें क्या करना चाहिए, कृपा करके बताएँ कि उन्हें क्या सुनना चाहिए, क्या कीर्तन करना चाहिए, क्या स्मरण करना चाहिए और क्या नही करना चाहिए।
महाराज परीक्षित के इस कुशल प्रश्न के उत्तर में शुकदेव ने सात दिनों में उन्हें संपूर्ण भागवत समझाई और उनका पूर्ण रूप से उद्धार किया।
इस संवाद में श्रवण करने वाला एवं कीर्तन करने वाला दोनों ही भगवान कृष्ण के शुद्ध भक्त थे। इस प्रकार संपूर्ण भागवत बहुत मीठा हो गया।
एक मुक्तात्मा के मुख से भागवतम् का श्रवण करके महाराज परीक्षित मृत्युभय से मुक्त हो गये तथा पूर्ण रूप से पवित्र हो गये। जिस प्रकार भगवान विष्णु के समक्ष कोई भी असुर नही रह सकता, उसी प्रकार शुकदेव के सामने कोई भी पाप नहीं रुक सकता।
परीक्षित महाराज को भगवत्प्राप्ति का ज्ञान प्रदान करने के बाद श्री शुकमहर्षि पुनः विश्व भ्रमण के लिये चल गये।
जब शुकदेव भागवतम् की कथा सुना रहे थे तब श्रोताओं में सूत महर्षि भी उपस्थित थे। उन्होंने अत्यंत श्रद्धा और ध्यान के साथ भागवतम् का श्रवण किया और नैमिशारण्य के ऋषियों को भागवतम् सुनाया।
श्रीमद्भागवतम् वेद और वेदांत का निष्कर्ष है। इस सत्य का प्रतिपादन स्वयं भागवतम् में "सर्ववेदांत सारं हि श्रीभागवतमिष्यते" के रूप में किया गया है।
मूलभूत रूप में भगवान श्रीकृष्ण ने भागवतम् को ब्रह्माजी के हृदय में प्रकट किया था। बाद में ब्रह्माजी ने इसे अपने पुत्र नारद को सुनाया।
नारदजी ने इसे व्यासदेव को बताया, जिन्होंने इसे ग्रंथ के रूप में प्रकट किया और अध्ययन करने के लिये शुकदेव को दिया। शुकदेव ने इसे महाराज परीक्षित को सुनाकर उन्हें जन्ममृत्यु के चक्र से मुक्त कराया।
सूत महर्षि ने इसे शुकदेव गोस्वामी से सुना, फिर शौनक आदि अन्य ऋषियों को नेमिशारण्य में सुनाया।
इस प्रकार श्री व्यासदेव का यह अन्तिम लेखन श्रीमद्भागवतम् उनके प्रिय एवं दिव्य पुत्र श्री शुकदेव के द्वारा संपूर्ण विश्व में विस्तरित किया गया। इसे वेदांत का निष्कर्ष और वेदांतसूत्र का सहज भाष्य माना जाता है।
जबकि व्यासदेव द्वारा रचित महाभारत को उनके प्रिय शिष्य वैशंपायन ऋली ने विस्तरित किया जिसे विश्व के पंचम वेद के नाम से भी जाना जाता है।
