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रैदास की प्रभु भक्ति किस भाव की है?
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रैदास की भक्ति दास्य भाव की है...
दास्य भक्ति के अंतर्गत भक्त स्वयं को दास कहता है...
तथा प्रभु को दिन दयालु, भक्त वत्सल्य कहता है...
वे स्वयं पानी और प्रभु को चन्दन मानते है...
वे प्रभु को गरीब निवाजु अर्थात दयालु कहते है...
और यह सब प्रतीत करता है की यह दास्य भक्ति के भाव है...
धन्यवाद...!
दास्य भक्ति के अंतर्गत भक्त स्वयं को दास कहता है...
तथा प्रभु को दिन दयालु, भक्त वत्सल्य कहता है...
वे स्वयं पानी और प्रभु को चन्दन मानते है...
वे प्रभु को गरीब निवाजु अर्थात दयालु कहते है...
और यह सब प्रतीत करता है की यह दास्य भक्ति के भाव है...
धन्यवाद...!
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रैदास (जिन्हें रविदास भी कहा जाता है) की प्रभु भक्ति दास्य भाव की है।
दास्य भाव में भक्त स्वयं को भगवान का दास या सेवक मानता है और उनके प्रति पूर्ण समर्पण और श्रद्धा रखता है। रैदास जी ने अपनी रचनाओं में ईश्वर को अपना स्वामी और खुद को उनका दास बताया है। वे भगवान को अपना रक्षक, मार्गदर्शक और एकमात्र सहारा मानते थे।
उनकी भक्ति में विनम्रता, समर्पण और प्रेम का गहरा भाव दिखता है।
उदाहरण के लिए, उनकी एक प्रसिद्ध पंक्ति है:
"रैदास कहै जाकै हृदय रमैं रमि राई।
सो प्रभु मिलै सहजैं कहैं रैदास दास तस पाई।"
इसका अर्थ है कि रैदास कहते हैं कि जिनके हृदय में राम बसे हैं, वे प्रभु सहजता से मिल जाते हैं, रैदास तो उनके दास हैं।