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मध्यकालीन शिक्षा के अध्यापक एवं शिक्षण विधियों का वर्णन कीजिए?
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मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली, जो कि भारत में लगभग 12वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक प्रचलित रही, में अध्यापक और शिक्षण विधियों की अपनी विशेषताएं थीं।
अध्यापक:
- शिक्षक की भूमिका: अध्यापक को 'उस्ताद' या 'मुअल्लिम' कहा जाता था। वे न केवल ज्ञान के स्रोत थे, बल्कि छात्रों के मार्गदर्शक और संरक्षक भी माने जाते थे।
- योग्यता: अध्यापकों का चयन उनकी विद्वता, चरित्र और शिक्षण कौशल के आधार पर होता था। वे आमतौर पर अपने विषय के विशेषज्ञ होते थे और उन्हें इस्लामी दर्शन, साहित्य, इतिहास और विज्ञान का गहरा ज्ञान होता था।
- सम्मान: अध्यापक को समाज में उच्च सम्मान प्राप्त था। छात्र और अभिभावक दोनों ही उनका आदर करते थे।
- दायित्व: अध्यापकों का दायित्व था कि वे छात्रों को न केवल ज्ञान प्रदान करें, बल्कि उन्हें नैतिक और सामाजिक रूप से भी विकसित करें। वे छात्रों को अनुशासन, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का पाठ पढ़ाते थे।
शिक्षण विधियाँ:
- मौखिक शिक्षा: मध्यकालीन शिक्षा में मौखिक शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान था। अध्यापक व्याख्यान देते थे और छात्र उन्हें ध्यान से सुनते थे। कंठस्थ करने पर जोर दिया जाता था।
- पुस्तकीय ज्ञान: पाठ्यपुस्तकों का उपयोग होता था, लेकिन उन्हें कंठस्थ करने पर अधिक बल दिया जाता था।
- वाद-विवाद: छात्रों को वाद-विवाद और चर्चाओं में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था, जिससे उनकी तार्किक क्षमता और अभिव्यक्ति कौशल का विकास होता था।
- उदाहरण और दृष्टांत: अध्यापक अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए उदाहरणों और दृष्टांतों का प्रयोग करते थे।
- निरीक्षण और अभ्यास: छात्रों को निरीक्षण और अभ्यास के माध्यम से सीखने का अवसर मिलता था।
- व्यक्तिगत ध्यान: अध्यापक प्रत्येक छात्र पर व्यक्तिगत ध्यान देते थे और उनकी आवश्यकताओं के अनुसार उन्हें मार्गदर्शन प्रदान करते थे।
- मदरसा शिक्षा: मदरसों में, इस्लामी शिक्षा, कानून, और साहित्य पर ध्यान केंद्रित किया जाता था।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली में कुछ कमियां भी थीं। यह शिक्षा प्रणाली मुख्य रूप से पुरुषों तक ही सीमित थी, और इसमें व्यावहारिक ज्ञान और कौशल पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था। फिर भी, इस प्रणाली ने भारतीय समाज और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।